सत्गुरुदेव

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श्री सत्गुरुदेव महात्मा ‘मंगतराम जी’ महाराज वर्तमान युग के जन्म सिद्ध सत्पुरुष हुए हैं। आपका जन्म 24 नवम्बर 1903 शुभ दिन मंगलवार को ग्राम गंगोठियां ब्राह्मणा जिला रावलपिण्डी (पाकिस्तान) में एक कुलीन कसाल ब्राह्मण वंश में हुआ। आपके पिता श्री का नाम पंडित गौरी शंकर जी और माता जी का नाम श्रीमती गणेशी देवी था। आपको तीन वर्ष की अल्पायु में परमात्मा की पूर्ण सूझ-बूझ थी। आप बाल्यकाल से ही सादगी, विनम्रता, कुशाग्र बुद्धि एवं भक्ति के प्रतिमूर्ति थे तथा दयालुता, धीरता, उदारता और क्षमा के प्रतीक थे।

जब आपकी उम्र तीन वर्ष की थी, आप रात्रि के समय उठ बिस्तर पर बैठ जाते। माँ की आँख खुलती तो क्या देखती कि प्यारा मंगत बैठा हुआ है। उनके मन में ख्याल आता कि शायद बेटा डर के मारे उठ कर बैठ गया है। कहती ‘मंगत क्यों बैठ गए हो? सो जाओ लाल ।’ आगे से उत्तर मिलता, “माँ, कुछ नहीं ऐसे ही बैठा हूँ। कोई बात नहीं माँ।” यह कह कर काफी देर तक बैठे रहते (ईश्वर की याद में) और फिर सो जाते ।

माँ प्रात: काल परांठे बना कर दिया करती थी कि बच्चा स्कूल में दोपहर को खा सके, किन्तु आप दूसरे निर्धन बालकों की रुखी सूखी रोटियां देखकर परांठे उन्हें दे देते और उनकी सूखी रोटियां स्वयं खाकर खुश होते ।

एक दिन माँ ने अपने बेटे मंगत को अतलस का नया कोट पहना कर पाठशाला भेजा। वहाँ आपने एक सहपाठी को फटे वस्त्र पहने देखकर तुरन्त अपना कोट उतार कर उसे पहना दिया और उसका फटा पुराना कोट स्वयं पहन लिया। स्पष्ट है कि बचपन से ही आपके स्वभाव में सादगी,बलिदान, परोपकार और दूसरों को प्रसन्न करने का कितना अधिक भाव विद्यमान था। आप पाठशाला से घर लौटते हुए रास्ते में किसी एकान्त स्थान में बैठकर ईश्वर की याद में खो जाते। तेरह वर्ष की स्वल्प आयु में ही आपको आत्मसाक्षात्कार हो गया। इसी दौरान समाधि अवस्था में आपको निम्नलिखित महामन्त्र 3 दिन में अवतरित हुआ ।

ओ३म् ब्रह्म सत्यम् निरंकार अजन्मा अद्वैत पुरखा सर्व व्यापक कल्याण मूरत परमेश्वराय नमस्तं ।।

वह पार ब्रह्म परमेश्वर पहले भी सत्य था, अब भी सत्य है और आगे भी सत्य ही रहेगा। वह अमर तत्व आकार रहित है। वह जन्म मरण से भिन्न शक्ति है। वह परम तत्व केवल अद्वैत ब्रह्म (जिस के समान दूसरा नहीं है) ही तीन काल विद्यमान है। जो सब का आधार है तथा शरीर रूपी पुरी में आत्मा करके वास करता है, उसे पुरखा कह कर पुकारा गया है। वह सब स्थानों और घटों में समान रूप से रमा हुआ है। ऐसे कल्याणकारी परमेश्वर को नमस्कार है।

इसके पश्चात श्री सत्तगुरुदेव जी अंतर साधना में तल्लीन रहने लगे । उनका अधिकतर समय एकांतवास में गुजरने लगा ।

सन् 1928 में आपके प्रथम शिष्य कबीर गद्दी अहमदाबाद के महन्त श्री रतनदास जी जो कि सिद्ध महापुरुष की खोज में सम्पूर्ण भारत का दो बार भ्रमण कर चुके थे, परन्तु सिवाए निराशा और पाखण्डवाद के कुछ नज़र नहीं आया, पुन: तीसरी बार जब रावलपिण्डी (पाकिस्तान) में लई नदी के किनारे निराश बैठे मन ही मन में ये विचार कर रह थे कि अब ये वशिष्ठ, याज्ञवलक, गौतम, कनाद, व्यास जी जैसे ऋषियों को पैदा करने वाली पवित्र भूमि सत्पुरुषों से हीन हो चुकी है और ऐसी हस्ती नज़र नहीं आती जो अज्ञानता के अंधेरे को ज्ञान के प्रकाश से दूर कर सके। इतने में श्री सत्गुरुदेव जी स्वयं उसी समय उस जगह पहुँच गये और महन्त जी की कल्पना निवृत्ति की ख़ातिर उनसे प्रश्न करने लगे, “प्रेमी, क्या ऋषियों, महाऋषियों को पैदा करने वाली ये पवित्र भूमि सत्पुरुषों से खाली हो चुकी है और अज्ञानता के अन्धकार को ज्ञान के प्रकाश से दूर करने वाला कोई नहीं रहा?” अपने अन्दरूनी संशयों को प्रगट पाकर महन्त जी ने निगाह ऊपर उठाई जो दुबले पतले सफेद खद्दर के कपड़ों में एक हस्ती को सामने खड़ा पाया। अपने मन के प्रश्नों को हल करने के लिए पूछा कि महाराज जी ! अज्ञानता का अन्धकार कैसे दूर हो सकता है? आपने इस पर उत्तर दिया, “प्रेमी, सत् स्वरूप परमात्मा को इस देह में प्रकाशवान कर लेने से अज्ञानता का अन्धकार दूर हो जाता है।” महन्त रतनदास जी के संशे की निवृत्ति हुई और कहा, ‘परमात्मा की कृपा से मुझे पूर्ण सत्गुरुदेव जी की प्राप्ति हुई और मेरे संशयों का निवारण हुआ।’

इसके पश्चात आपने आजीवन अपना समय सत् सिमरण, निष्काम सेवा और आम जनता को सदाचारी जीवन तथा सत्मार्ग बोध कराने में व्यतीत किया। समाधि अवस्था में अमरवाणी का उच्चारण सहज रूप में, जैसा विचार प्रभु आज्ञा से आता रहा, आपके परम सेवक भगत बनारसी दास जी वाणी को लिखते रहे। कई प्रसंगों में ये रब्बी वाणी लिखी गई। इन सबको एकत्र करके ग्रन्थ श्री समता प्रकाश (पद्य) का रूप दिया गया। अन्तिम पृष्ठ पर सत्गुरुदेव जी ने चेतावनी दी कि किसी को इसका अक्षर, चौपाई अथवा श्लोक भंग करने की आज्ञा नहीं है। ग्रन्थ की नुमायश तथा श्रृंगार न करने का आदेश लिखकर आपने हस्ताक्षर किये।

इसके अतिरिक्त दूसरा ग्रन्थ श्री समता विलास गद्य यानी वचनों के रूप में आपके पवित्र कर कमलों द्वारा सम्पन्न हुआ ।

आपने संगत समतावाद नामक संस्था की नींव रखी। आपका दृष्टिकोण था कि संसार के सभी मानव मात्र को संगत समतावाद जानें। समता को तमाम विश्व की सेवा का स्वरूप समझें। आप संसार भर की तमाम धार्मिक संस्थाओं के पथ-प्रदर्शकों का आदर करते थे और आपने फ़रमाया कि संगत समतावाद सब मज़हबों के रहनुमाओं की इज्जत करती है।

आपने सांसारिक प्राणियों को सत् शान्ति की प्राप्ति के लिए आत्मिक उन्नति के पाँच मुख्य साधनों को अपने निजी जीवन में ढालने का उपदेश दिया ।

आप 4 फरवरी 1954 को वीरवार के दिन गुरु नगरी अमृतसर में 50 वर्ष की आयु में अपने नश्वर शरीर का त्याग करके परम सत्ता में विलीन हो गये ।

आपका अंतिम सन्देश :

“इनका मिशन पूरा हो चुका है। वाणी प्रकट हो चुकी है। जैसा कोई रोगी होगा, अपने रोग का इलाज इन ग्रन्थों में से तलाश कर लेगा।”

वह जीवन शैली जिसको धारण करके जीव अपना तथा समाज, देश और मानव मात्र का कल्याण कर सकता है – “समतावाद” का नाम दिया।

वासना और चतुराई के इस अंधे युग में सादगी और मर्यादा का संदेश सहज विचारों से नहीं दिया जा सकता। मुन्किर अक्ल, अमल के आगे झुकती हैं; चतुराई मोजजे से मात खाती है। गुरुदेव का जीवन एक ऐसा ही मोजजा था, एक अनोखा चमत्कार था। यहां मानवता की सीमायें टूटती नजर आती हैं, देवत्व का अभिमान गिरता नजर आता है। यह दीनता और गरीबी की कहानी है, और इसी कारण यह ऐश्वर्य और महिमा से दीप्त है। यह उस दिव्य पुरुष की कहानी है जिस की रातें आसमान तले कटती रहीं, जिसका जीवन एक बार की चाय पर चलता रहा; जिसकी पच्चीस वर्ष की आयु के बाद कभी आंख न लगी। जंगलों और बियाबानों में बैठे उसके मुख से अनजाने ही देववाणी का प्रवाह बहता रहा। यहां सोची बात से मतलब नहीं था, यहां देखी का सौदा था ।

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संगत समतावाद धर्मशाला – हरिद्वार
हिमालय डिपो, गली न.1, श्रवण नाथ नगर, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)