
।। भावार्थ ।।
वह पार ब्रह्म परमेश्वर पहले भी सत्य था, अब भी सत्य है और आगे भी सत्य ही रहेगा। वह अमर तत्व आकार रहित है। वह जन्म मरण से भिन्न शक्ति है। वह परम तत्व केवल अद्वैत ब्रह्म (जिस के समान दूसरा नहीं है) ही तीन काल विद्यमान है। जो सब का आधार है तथा शरीर रूपी पुरी में आत्मा करके वास करता है, उसे पुरखा कह कर पुकारा गया है। वह सब स्थानों और घटों में समानरूप से रमा हुआ है। ऐसे कल्याणकारी परमेश्वर को नमस्कार है”।
।। ग्रंथ श्री समता प्रकाश से वाणी ।।
।। ॐ ब्रह्म सत्यम् सर्वाधार ।।
‘त्रयोदश’ अक्षर मंत्र यह, सरब सिद्ध दातार।
जो सिमरे नित प्रेम से, मंगल पाये अपार।।
जनम जनम जाये भरमना, प्रभ चरण पाये विश्वास।
मोह माया संकट मिटे, सब कारज होवें रास।।
महमा सतसरूप की, सब अक्षर पहचान।
चार वेद और सिमरती, सबका सार निधान।।
परम शकत परकाश अत, धारे कोट पिण्ड ब्रह्मण्ड।
सरब न्यारा आप रहे, तत्त नाद रूप अखण्ड।।
रिखी मुनी और देवते, गायें गुरु अवतार।
महिमा अवगत रूप की, पल पल करें विचार।
उतपत परले जो होये, सो असत माया विकार।
अजन्मा कर प्रभ पूजते, जुग जुग गुणी अपार।।
केवल सत तत्त रूप को, पूजें सिद्ध बुद्ध अनेक।
दृश्यमान सब भरम है, प्रभ केवल रूप अद्वैत।।
परम शकत संसार में, ज्ञान मात्रक सार।
सरब आधारी तत्त सो, करें पुरखा विचार।।
लाख चौरासी जन्त में, जो समरस रहया व्याप।
सर्व-व्यापक जान के, हरजन करते जाप।।
राग द्वेष जाँ को नहीं, शुद्ध सरूप त्रैकाल।
कल्याणमूरत तत्त ध्यान से, तन मन होये निहाल।।
सरब शकत आधार जो, अतुल शकत निरधार।
परमेश्वर कर पूजिये, ताप तपन होये छार।।
नमो नमो प्रभ रूप को, जाँ की महिमा अपरमपार।
अनन्त शकत तत्त शब्द को, नमस्तं बारमबार।।
तत्त मन्तर महिमा अपार है, ज्ञान सागर अथाह।
जिस विध जो सिमरन करे, भव दुस्तर तरे असगाह।।
तत्त सरूप परमात्मा, सब अक्षर महमा जाँ।
जो सिमरे चित्त प्रीत से, कलह न व्यापे ताँ।।
सत मन्तर सिमरन करे, उठत बैठत नर जोये।
जाये भरम की दूषना, चित्त शाँत परापत होये।।
विजय पाये संकट मिटे, सतगुन ले सुखसार।
आध व्याध जाये कल्पना,पाये सूझ धरम अपार।।
जो ध्याये नित प्रेम से, परसे नहीं पखवाद।
समता तत्त रसना मिले, मोह ममता मिटे मूल परमाद।।
कलह कलेश सब दूर होये, पाये ज्ञान तत्त योग।
‘मंगत’ तत्त अक्षर नित गाइये, प्रभु दरशन होयें संजोग।।
इस वाणी से स्पष्ट है कि महामंत्र जगद्दीक्षा के रूप में अवतरित हुआ था। ईश्वर कभी शरीर रूप में प्रकट होकर जिज्ञासु का मार्गदर्शन करते हैं। उस समय वे गुरुरूप होते हैं। कभी ऐसा समय आता है कि वे शब्दरूप परमेश्वर मंत्ररूप में अवतार लेकर जीवों की तपन बुझाते हैं। परन्तु ऐसी कृपा कभी कभी ही हुआ करती है। ऐसे महामंत्रों में शक्तिपात की क्षमता निहित रहती है। बिना दीक्षा लिये ही महामंत्र के द्वारा जिज्ञासु दीक्षित हो सकता है । यही इसकी महिमा है। प्राण-अपान की साधना के लिये तो कामिल गुरु की जरूरत रहती है, क्योंकि उसे गुप्त रखा गया है। लेकिन महामंत्र सबके लिये है । इसके जाप के लिए दीक्षा की जरूरत नहीं है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित संवाद शिक्षाप्रद है।
“यह महामंत्र श्री गुरूदेव को तेरह वर्ष की आयु में उस समय प्रकट हुआ जब वह तरेल नदी के किनारे समाधी में थे।“
गुरुदेव : गुरु बनाया नहीं जाता। इधर तालीम में कोई कमी नहीं रखी गई। महामंत्र अपने-आप में गुरुमंत्र है। सहज-सहज अंगों में समाधि में अनुभव होता रहा । जैसे-जैसे आया नोट करते रहे। अब मुकम्मिल रूप में यह रूहानीमंत्र अर्थ सहित समताप्रकाश में लिखा है। गीता में भी जपयोग की बड़ी महानता बतलाई गई है। यह मंत्र सर्वसिद्धिदातार है।
प्रेमी : जनता को कुछ लोगों द्वारा गुमराह किया जा सकता है और महामंत्र की जगह गुरुमंत्र का लालच दिया जा सकता है।
गुरुदेव : जैसे ‘रोटी’ शब्द पढ़ने से भूख की निवृत्ति नहीं होती, वैसे ही कामिल गुरु के बगैर युक्ति और शक्ति नहीं मिलती।
प्रेमी : फिर महामंत्र से आपकी अनुपस्थिति में कैसे सन्तोष होगा ? वह भी तो “रोटी” शब्द की तरह ही तो समझा जायेगा?
गुरुदेव : “प्रेमीजी, कामिलपुरुषों की तहरीर (लेख) व तक़रीर (वचन) में कोई अन्तर नही होता।”
इस वार्तालाप से स्पष्ट हो जाता है कि प्राण-अपान की साधना के लिये दिया गया गुरुमंत्र तो उन्हीं के लिये लाभदायक होगा, जिन्हें कि यह गुरुदेव द्वारा दिया गया है, लेकिन महामंत्र खुला रखा गया है और इसी कारण इसका जाप करने वाले पर गुरुकृपा स्वतः होने लगेगी। इस वार्तालाप से निष्कर्ष यह निकलता है कि वही साधना सफल होती है जो कि किसी ब्रह्मनिष्ठ पुरुष की कृपा से प्राप्त हो। इसलिये जो लोग महामंत्र का जाप करेंगे वे तो परमसिद्धि को प्राप्त होंगे और जो किसी अधूरे गुरु से गुरुमंत्र लेंगे वे कभी मंजिल पर नहीं पहुंच सकेंगे क्योंकि वह उन्हें किसी सिद्ध पुरुष से प्राप्त नहीं हुआ। वास्तव में दीक्षा का अर्थ किसी मंत्र-विशेष को प्राप्त करना नहीं है, न ही किसी साधना पद्धति को। दीक्षा का अर्थ है ईश्वर-कृपा चाहे वह किसी भी साधनापद्धति के रूप में प्रकट हुई हो। वही युक्ति सफल होगी जो कि आत्मरूप गुरु से प्राप्त होती है। महामंत्र के द्वारा गुरुकृपा सर्वसंसार पर हुई है। इसीलिये यह मंत्र साधारण मंत्र न होकर ‘महामंत्र’ कहा गया है।